Thursday 14 August 2014

हम आज़ाद कब कहलाँगे...



आज़ादी के 74 साल बाद भी आप हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बंटवारे को याद करके क्यों दुखी होते हैं? या डिवाईड एण्ड रूलयानी बांटों और राज करो की नीति के लिए अंग्रेजों की निंदा क्यों करते हैं। जबकि आप खुद आज धर्म, जात, क्षेत्र, भाषा, राज्य, आर्थिक और यहां तक कि बौद्धिक आधार पर बंटवारे के लिए तैयार रहते हैं। फिर इसी बंटी हुई जमात में से अपना नेता चुनते हैं। ज्यादा दूर न जाईए तो दो महीने पहले सम्पन्न हुए आम चुनाव तक चलते हैं। धर्म के नाम पर बीजेपी को जिताने के लिए एक तरफ हिंदू एकजुट होते दिखाई दिए तो कई इलाकों में मुसलमान संगठित हुए बीजेपी को शिकस्त देने के लिए। इन्होंने उनके लाल टीके से खुन्नस निकाली तो उन्होंने इनकी सफेद टोपी व दाढ़ी से़। इधर आपके समर्थन में एलीट वर्ग खड़ा नज़र नहीं आया। इन्हें यह डर कि जुड़ गया तो इनकी खासियत जाती रहेगी। इसी तरह बसपा दलितों और पिछड़ों की पार्टी मानी जाती है, तो यहां तो और भी दिक्कत है। एकआध बार नाम लिया,तज़किरा किया बसपा सुप्रीमो मायावतीका अपनी पढ़ी-लिखी सर्वण हम मज़हब बहनों के बीच। जवाब में सुनने को मिला कि वह तो मेहतरों-चमारों की नेता हैं, इनसे तो बेहतर है सपा को चुनें, आखिर मुसलमानों के हक की बात तो करती है। दिल को ठेस लगी यह सोंचकर कि सड़क किनारे चाट के ठेले पर गोलगप्पे खाने से पहले तो तुम चाट वाले की जात नहीं पूछतीं फिर मताधिकार के प्रयोग के लिए कास्ट कांशिएसक्यों
ज़रा यूपी के हालिया हालात पर नज़र डालिए। एक लड़का किसी लड़की को छेड़ता है तो इसे धर्म व जात की इज्जत का सवाल बना लिया जाता है और प्रदेश में दंगे भड़क जाते हैं। यहां मुसलमान मंदिर में लगा लाउडस्पीकर उतारने को आतुर हैंै क्योंकि उसे डर है कि भजन सुनने से उसका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। क्या इसी दिन के लिए हमने अंग्रेजों से आज़ादी हासिल की थी? शहीदों ने अपना खून बहाया था कि भाई-भाई का गला काटे। यूपी-बिहार के लोग महाराष्ट जाते हैं रोज़ी-रोटी की तलाश में। अपनी प्रतिभा के बलबूते नौकरी हासिल करना चाहते हैं पर एक नहीं कई बार ये हुआ कि क्षेत्रवाद से प्रेरित होकर टैलेण्ट को भईयाकहकर धक्का दे दिया गया। अंग्रेजी जानने वाला आदमी हिंदी जानने वाले के रास्ते का कांटा बना बैठा है। कैसी विडंबना है? अवसर के लिए भाषा के खिलाफ जंग छेड़नी पड़ रही है। ये अंग्रेजी के विद्वान ये क्यों भूल जाते हैं कि हमारा देश सोने की चिडि़यातब कहलाता था जब न यहां अंग्रेज थे न अंग्रेजियत। किसी भाषा का जानकार होना अच्छा है। पर एक भाषा को दूसरी भाषा की सौतेली बहन बनाकर खड़ा कर देना गलत है। महानगर के कई लोग गांव कस्बे के लोगों की सोच को छोटा बताकर उनके मूल्यों और आदर्शों की खिल्ली उड़ाते हैं। यहां तक कि एक ही शहर के निवासी नए और पुराने शहर के आधार पर खुद को बंटा हुआ दिखाना पसंद करते हैं। अक्लमंदी का सर्टिफिकेट पाए हुए कुछ माननीय अपने से छोटे संघर्षशील व्यक्ति से दूरी बनाकर चलते हैं। वे अपनी जमात वालों के शिटपर भी वाह-वाह करते दिखाई पड़ते हैं लेकिन संघर्षशील व्यक्ति के टैलेण्ट को गले लगाने से हिचकिचाते हैं। ये भी भूल जाते हैं आज वे जिस जगह हैं वहां तक इसी रास्ते से होकर पहंुचे हैं। कहने का मतलब ये है कि यदि आप लोग इस क़दर बंटे हुए हैं। और बांटने-बंटने की पालिसी पर ही चलते रहना है तो फिर देश या समाज के नुकसान पर मगरमच्छ के आंसू बहाना बंद कीजिए। किसी भी तरह के बंटवारे, भेदभाव, अन्याय और गुलामी वाली व्यवस्था पर झूठा अफसोस जताने का तब तक कोई फायदा नहीं जब तक कि आप खुद भी किसी न किसी रूप में इसी व्यवस्था का हिस्सा हैं। अंग्रेजों के बाद अगर देशवासियों को आपस में ही अपने अधिकारों या समान अवसरों के लिए अलग-अलग धर्म, जात, क्षेत्र, भाषा और विचारों के कारण संघर्ष करना पड़े तो फिर हम आज़ाद कैसे और किन मायनों में हुए,गौर करने की जरूरत है।

Monday 21 July 2014

ज़रूरी है भावनाओं का मैनेजमेंट

एक ओर ओपन एयर रेस्तरां में दोस्तों के साथ बैठकर पिज्जा-बर्गर खा रही हो। मल्टीप्लेक्स में 'पहले दिन का पहला शो' देख रही हो। स्कूटर-कार से सड़कों पर फर्राटे भर रही हो। स्कूल-कालेज में मिनी स्कर्ट, जींस पहनकर घूम रही हो। बार्डर पर दुश्मनों के सीने पर गोलियां दाग रही हो। हवाई जहाज से सरहदें फलांग रही हो। कबड्डी खेल रही हो, मुक्केबाजी कर रही हो। पहाड़ चढ़ रही हो। चांद पर जा रही हो। अंग्रेजी में गिटपिट कर रही हो। लैपटाप से वीडियो चैट कर रही हो। स्मार्टफोन से फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप अकाउंट हैंडिल कर रही हो.........! और दूसरी ओर........! बहलाई-फुसलाई जा रही हो, घुमाई-टहलाई जा रही हो। बहकाई-भगाई जा रही हो। रुलाई-सताई जा रही हो। डराई-धमकाई भी जा रही हो!!! कभी सोचा है क्यों? जहां तक मुझे लगता है तुमने अपने विकास के हर पहलू पर गौर किया है सिवाय भावनात्मक पहलू के। ठीक है कुदरत ने स्त्रियों के हैण्डबैग में भावनाएं-संवेदनाएं मुट्ठी भर-भरकर डाली हैं। पर क्या ये जरूरी है कि आगा-पीछा सोचे-समझे बिना इन्हें सोशल साइट के स्टेटस की तरह हर किसी ऐरे-गैरे को शेयर करती चलो.....
मैनेजमेंट के इस दौर में भावनाओं को भी मैनेज करने की सख्त जरूरत है। तुम्हें भी अपनी भावनाओं को मैनेज करना सीखना होगा। कब किससे क्या और कितनी बात करनी है,ये सलीका जब तक नहीं सीखोगी छली जाती रहोगी। तब तक ठगी जाती रहोगी जब तक कि ‘गालिब‘ की गज़ल और ‘मीर‘ के शेरों से ही रीझ जाने की अपनी आदत नहीं छोड़ देतीं। तब तक मूर्ख बनाई जाती रहोगी जब तक तुम्हारी दुनियां केवल तुम्हारे प्रेमी या पति के इर्द-गिर्द ही सिमटी रहेगी। वशिष्ठ धर्मसूत्र में लिखा है-''पिता रक्षति कौमारे, भ्राता रक्षति यौवने, रक्षति स्थविरे पुत्रा, न स्त्री स्वातंत्रमर्हति''। इसका मतलब है-कुमारी अवस्था में स्त्री की रक्षा की जिम्मेदारी पिता की। यौवन में पति की और बुढ़ापे में पुत्र की है। जमाना बदल गया पर तुम आज भी इसी सड़े-गले सिद्धांत को जी से लगाए बैठी हो।
तुम्हें अपनी सुरक्षा के लिए एक पुरुष बाडीगार्ड चाहिए ही चाहिए,ऐसा क्यों? हाथी को अंकुश से, घोड़े को चाबुक से, सींग वाले पशुओं को डंडे से वश में किया जाता है और दुष्ट व्यक्ति को नियंत्रण में करने के लिए तलवार जरूरी है। क्यों नहीं वह समझ बनातीं जो तुम्हें खतरे के प्रति पहले ही आगाह कर दे। दुष्ट लोगों को अपनी विवेक रूपी तलवार से काटो। जिस प्रकार मोबाईल में डिलीट मारने का विकल्प होता है इसी प्रकार से अपनी जि़दगी में भी अनावश्यक और कूड़े-करकट से दिल लगाकर मत बैठ जाओ बल्कि इसे मसलकर रिसाइकिल बिन में डालो। खुद को 'डायमंड इंगेजमेंट रिंग'' के घेरे से आजाद रखो। कीमती तोहफो के बदले सम्मान से समझौता न करो, जीवन के हर पहलू के प्रति खुद को अपडेट और सचेत रखो।
मुझे यकीन है कि जिस दिन तुम अपनी भावनाओं के मीटर को मैनेज करने में सफल हो गईं अखबारों की इस तरह की सुर्खियां कतई नहीं बनोगी........युवती को बहला-फुसलाकर, धोखे से, शादी का झांसा देकर, नौकरी दिलाने के बहाने,या होटल के कमरे में धोखे से बुलाकर रेप! आचार्य 'चाणक्य' कहते हैं कि गुप्त स्थान पर संभोग करना। ढीठ होना,समय-समय पर आवश्यक वस्तुएं संगृहीत करना, निरंतर सावधान रहना और किसी दूसरे पर पूरी तरह विश्वास नहीं करना, ये पांच बातें कौए से सीखनी चाहिए। और मुझे लगता है आचार्य जी के सिधांत आज भी प्रासंगिक हैं। शो-केस में सजाने वाली संुदर,सुशील, सहनशील, मृदभाषी, मुस्कुराती हंसनियां बनना बंद करो। भावनात्मक स्तर से चालाक कौवी बनो इससे कम से कम तुम्हें यह मलाल तो नहीं रहेगा कि तुम अपनी मूर्खता की वजह से किसी अनहोनी की भेंट चढ़कर अकाल मौत मर गईं।
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------












Saturday 14 June 2014

तो मिलेगी इज्जत से जीने की गारंटी..!

संसद के संयुक्त सत्र में राष्टपति का महिलाओं को संसदीय एवं प्रशासनिक पदों पर 33 फीसदी आरक्षण देकर आगे लाने का वादा आधी आबादी को बेहतर कल की उम्मीद बंधाने वाला है। उम्मीद इस बात की कि देश में सर्वोच्च पदों पर महिलाओं का ज्यादा से ज्यादा वर्चस्व होगा तो इनके जरिए आधाी आबादी की आवाज असरदार तरीके से सत्ता पर विराजमान नीति-निर्णायकों के कानों तक पहंुचेगी। इसकी उम्मीद कि मां की कोख में बेटियों को जीवित रहने और जन्म लेने की गारण्टी मिलेगी। गरीब और दबे-कुचले परिवार में जन्म लेने के बावजूद पोषणयुक्त भोजन मिलेगा। वे आगे बढ़ेंगी, पढेंगी। घर से बाहर निकलने पर सुरक्षित घर वापस लौट सकेंगी। योग्यतानुसार नौकरियां पाएंगी। ससुराल में दहेज न ले जाने पर भी सुखी वैवाहिक जीवन जी सकेंगी। कुल मिलाकर उम्मीद इस बात की कि प्रधानमंत्री ‘नरेंद्र दामोदर दास मोदी‘ की ओर से दिखाए गए अच्छे दिनों का सपना साकार हो सकेगा। हालांकि सैकड़ों उम्मीदों के पूरा होने की राह में जो बेशुमार रोड़े हैं उनको कैसे उखाड़ फेंका जाएगा यह सवाल बड़ी मजबूती से सिर उठाए खड़ा है।
देश में महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति सुधारने की दिशा में संघर्ष और प्रयास तो आजादी से पहले ही शुरू हो चुके थे। इस दिशा में कई चुनौतियों पर विजय भी हासिल हुई है। लेकिन आजादी के 66 सालों के बाद भी जारी इस सफर की रफतार बहुत धीमी है। महिलाओं के हक में सैकड़ों कानून और योजनाएं लागू किए जाने के बाद भी आधी आबादी की दशा शोचनीय है। ‘कन्या भ्रूण हत्या‘ के खिलाफ सख्त कानून लागू होने के बाद भी देश में प्रत्येक वर्ष सात लाख बेटियों मां के गर्भ में ही मारी जा रही हैं। इससे स्त्री-पुरुष लिंगानुपात में असमानता है। प्रति एक हजार लड़कों के अनुपात में 940 लड़कियां हैं जिससे कई इलाकों में तो शादी के लिए लड़कियां ही नहीं मिल रही हैं। ‘नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो‘ के मुताबिक प्रतिवर्ष 20 हजार से ज्यादा महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहे हैं। आठ हजार से ज्यादा दहेज हत्याएं हो रही हैं। पति और रिश्तेदारों द्वारा हिंसा व प्रताड़ना की शिकार महिलाओं का ग्राफ एक लाख का आंकड़ा पार कर चुका है। ‘यूनिसेफ‘ की रिपोर्ट के मुताबिक भारत की 50 फीसदी किशोरियां एनिमिक हैं। यानि उनके जिस्म में खून की कमी है। 40 फीसदी से ज्यादा लड़कियां 18 साल की होने से पहले ही ब्याह दी जाती हैं और 22 फीसदी मां बन जाती हैं।
यह स्थिति तब है जब वर्तमान समय में लोक सभा में महिलाओं का फीसद 11 तो राज्य सभा में 10.6 है। 188 देशों के बीच राजनीति में महिलाओं की भागीदारी के संदर्भ में भारत का स्थान 108वां है। हालांकि मोदी सरकार देश की कमान सम्भालने के बाद से ही इस स्थिति को और सुधारने के प्रयास करती दिखाई दे रही है। प्रधानमंत्री ने जिस तरह अपने मंत्रिमंडल में करीब 25 फीसदी महिलाओं को जगह दी। विदेश मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद के लिए ‘सुषमा स्वराज‘ और ‘लोकसभा स्पीकर‘ के लिए सुमित्रा महाजन के नाम पर मोहर लगाई, इससे ‘महिला सशक्तिकरण‘ को लेकर उनकी नीयत साफ-सुथरी जान पड़ती है। संसद में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण की घोषणा होने के बाद अब लोकसभा में महिला आरक्षण बिल पास होने और इसपर राष्टपति की मुहर लगने की देरी है। जबकि राज्यसभा में यह बिल पहले ही पास हो चुका है। कदम सराहनीय है लेकिन 33 फीसदी आरक्षण मिलने के बाद आरक्षित सीटों को भरने के लिए राजनैतिक पार्टियों को महिलाओं के लिए दिल बड़ा करने की जरूरत पड़ेगी। आज भी चुनाव में पर्याप्त संख्या में महिलाओं को टिकट नहीं दिए जा रहे। जबकि कई राजनैतिक पार्टियों में ‘महिला विंग‘ तक नहीं हैं। दूसरी ओर सत्ताधारी महिलाओं को भी अपनी जिम्मेदारी की गंभीरता को समझना होगा। सकारात्मक नतीजे भी तभी प्राप्त हो सकेंगे जब सत्ता में भागीदारी रखने वाली महिलाएं स्वंय पितृसत्तात्मक सोच से प्रभावित हुए बिना अपने फर्ज को अंजाम दें। क्षेत्रीय एवं दलगत राजनीति से उपर उठकर महिलाओं के खिलाफ होने वाले अन्याय के खिलाफ एकजुट होकर आवाज बुलंद करें, फैसले लें। भारतीय समाज में उपरी और दिखावटी नहीं बल्कि भीतरी बदलाव लाने की कोशिशें की जाएं। सत्ता को पुरखों की विरासत के रूप में सौंपने का चलन बंद हो। केवल ‘रायल ब्लड‘ को ही तरजीह न दी जाए बल्कि समाज के दबे-कुचले और गरीब तबकों की महिलाओं का भी संसदीय एवं प्रशासनिक पदों पर स्वागत किया जाए।
कल्पतरु एक्सप्रेस में प्रकाशित लेख
फोटोः गूगल से साभार

Tuesday 10 June 2014

विकास की स्पीड पर भारी बेटियों की चीखें!

दो बहनों से सामूहिक बलात्कार के बाद पेड़ से लटकाया। सामूहिक बलात्कार के बाद लड़की को तेजाब पिलाया। युवती से सामूहिक बलात्कार के बाद जलाया। प्रेमी युगल पेड़ से लटकाकर फांसी दी। छह साल की बच्ची से रेप! इन दिनों यूपी की यह दिल दहला देने वाली तस्वीर उभरकर सामने आई है। यहां बलात्कार की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रहीं। लड़कियां घर से कदम निकालने के नाम पर सहम रही हैं। जाहिर है इस तरह की खबरें सुनकर तो सभ्य समाज के इंसानी दिल दहल ही जाने चाहिए। रोंगटे खड़े हो जाने चाहिए। दिन का सुकून और रातों की नींद उड़ जानी चाहिए पर अफसोस महिलाओं के साथ बर्बरता पर कानून व्यवस्था के जिम्मेदारों की सेहत पर कोई असर होता नहीं दिखाई दे रहा। प्रदेश की बेटियों के साथ क्रूर से क्रूरतम अपराध घटित हो रहे हैं। सत्ताधारी या रसूख-दबदबे वाले लोग त्वरित और कड़ी कार्रवाई के बजाय अपराधियों के हौसले बुलंद करने वाले बयान दे रहे हैं। सवाल पूछे जाने पर प्रदेश की सत्तारूढ़ सरकार के मुखिया कहते हैं-‘‘हम अपना काम कर रहे हैं, आप अपना काम कीजिए‘‘। पर हकीकी मायनों में महिलाओं की सुरक्षा से जुड़े काम हो रहे होते तो कानून-व्यवस्था की चूलें इस कदर ढ़ीली न होतीं। प्रतिदिन कम से कम 10 बलात्कार की घटनाएं प्रकाश में न आतीं। सिसकियां ले रही कराह रही बेटियों की चीखों की गंूज दूसरे देशों तक न पहंुचती। संयुक्त राष्ट के महासचिव ‘बान की मून‘ की ओर से बदायंू की बर्बरता पर कार्रवाई की मांग न की जाती। भारत में महिलाओं पर हो रही हिंसा पर अमेरिका हैरानी न जताता। पर देश की छवि खराब होती है तो क्या सत्ता का नशा उतरने वाला नहीं। यह तो सिर चढ़कर बोल रहा है। जिम्मेदार तो कहते हैं कि और जगहों पर भी बलात्कार होते हैं। उत्तर प्रदेश को बेवजह ही निशाना बनाया जा रहा है। यानि यह कोई खास बाद नहीं। हल्ला मचाने की कोई जरूरत नहीं। हद हो गई महिलाओं की सुरक्षा के मुद्दे पर संवेदनहीनता की। बदायंू में दो नाबालिग लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार और उनकी नृशंस हत्या कर पेड़ से लटकाए जाने का मामला अभी शांत भी नहीं हुआ। सभी आरोपी पकड़े तक नहीं गए कि मुज्जफरनगर, अमेठी, मेरठ, गुड़गांव, राजस्थान, सहित प्रदेश और देश के अन्य इलाकों से भी मासूम बच्चियों और युवतियों के साथ बलात्कार के दो दर्जन से ज्यादा मामले प्रकाश में आए गए। हद तो यह है कि महिला मुख्यमंत्री वाले प्रदेश राजस्थान में भी बलात्कार के मामले प्रकाश में आ रहे हैं। जहां आरोप-प्रत्यारोप से ही जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेने का दौर चल पड़ा हो वहां वसंुधरा राजे भी यह कहकर पल्ला झाड़ सकती हैं कि यूपी से भयावह स्थिति तो राजस्थान की नहीं है।
देश-प्रदेश की बेटियां खून के आंसू रो रही हैं पर आम जनता की रहनुमाई व हिफाजत के दावे करने वाले नेता महिलाओं की अस्मत की चिता पर भी राजनीति की रोटियां सेंकने से बाज नहीं आ रहे। एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला जारी है। घटनास्थल पर हेलीकाॅप्टर से उतरते हैं। मिनरल वाॅटर पीते हैं। एसी गाडि़यों में बैठकर बलात्कार पीडि़त लड़कियों के घर का टूर करते हैं लेकिन इसके बाद भी अपनी ताकत और पद का इस्तेमाल अगला बलात्कार रोकने में नहीं कर पाते। लानत है ऐसे रसूख पर जो कमजोर व निर्बल की रक्षा न कर सके। मीडियावालों! बलात्कारों पर ब्रेकिंग न्यूज दे देकर विकास का मंुह ताक रहे दूर-दराज के गावों में मेले चाहे जितने लगवा लो। बाॅलीवुड वालों तुम क्यों रह गए। तुम भी आओ, बदायंू और उन्नाव की वीभत्स सत्य घटनाओं और उसपर चल रही नौटंकी पर ‘पीपली लाइव-टू-थ्री, बना लो। कुछ नहीं होने वाला। कुछ नहीं बदलने वाला। क्योंकि विश्व पटल पर संवेदनशीलता का ढ़ोंग रचाने वाला हमारा देश हकीकत में रोबोटिक युग में प्रवेश कर गया है। हम विदेशी ढर्रों का अनुसरण करते हुए डिब्बाबंद लंच-डिनर ले रहे हैं। ब्रांडेड पोशाकें पहन रहे हैं। हमारे पास बीएमडबल्यू और फेरारी जैसी कारें हैं। बस नहीं है तो स्त्री के प्रति संवेदना। वह भावनाएं नहीं हैं जो पर स्त्री को भी अपनी मां, बहन बेटी की तरह देखने की दृष्टि प्रदान करे। देश की गरीब और आम बेटियां भी यह बात जितनी जल्दी समझ लें उनके लिए उतना ही अच्छा रहेगा। क्योंकि उन्हें अपनी सुरक्षा के उपायों पर खुद ही विचार-विमर्श करना होगा। कठोर कदम उठाने होंगे। उन्हें समझना होगा कि हमारे देश-प्रदेश का शासकीय व सत्ताधारी तंत्र नपंुसक हो चला है, जो बेटियों की सुरक्षा की दिशा में कोई सकारात्मक फल देने में लाचार नजर आता है। क्या हुआ जो देश की छवि खराब हो रही है। इसकी मरम्मत सत्ताधारी अपनी कूटनीति से बाद में कर ही लेंगे।
जब किसी ‘वैश्विक महिला सम्मेलन‘ में विदेश से बुलावा आएगा तो बेटियों की तरक्की से संबंधित तमाम आंकड़े इकट्ठे करके फेहरिस्त पढ़कर सुना देंगे। बता देंगे कि यूपी में दलित समुदाय से अपनी पहचान बनाने वाली बहनजी मायावती भारत की उपलब्धि हैं। जिन्होंने बतौर मुख्यमंत्री प्रदेश की कमान चार बार सम्भाली है। वह दलित समुदाय की बेटियों के अधिकारों की झण्डाबरदार हैं। सीनातानकर कह देंगे कि वर्तमान समय में विधानसभा में 35 महिला एमपी हैं। देश के पास चार महिला मुख्यमंत्री हैं। आमचुनाव-2014 से 61 महिला सांसद चुनकर लोकसभा में भेजी गई हैं। अच्छे दिनों का सपना दिखाने वाले प्रधानमंत्री मोदी हैं। उनकी कैबिनेट में भी सात शक्तिशाली महिलाओं को जगह दी गई है। हमारे पास दो दर्जन से ज्यादा एक्सप्रेस-वे हैं। हम डबल डेकर फलाई ओवरों का निर्माण कर रहे हैं। हमने अग्नि-5 जैसी मिसाइल बना ली है। महिलाओं को खेत-खलिहानों में शौच के लिए न जाना पड़े इसके लिए ‘निर्मल ग्राम‘ योजना है। तो क्या हुआ योजना के लागू होने के बाद भी प्रचार ज्यादा और काम कम हुआ है। ग्रामीण इलाकों के 50 फीसदी घरों में शौचालय का निर्माण नहीं हो सका है। आप ये बलात्कार-वलात्कार जैसी बेकार की चर्चाएं छोडि़ए हमारे विकास के दूसरे पहलुओं पर नजर डालिए और तालियां बजाईए।
‘कल्पतरु एक्सप्रेस‘ में प्रकाशित लेख। फोटो ‘गूगल‘ से साभार।



दरिंदों का आसान शिकार क्यों बन रहीं प्रदेश की बेटियां

कितना गर्व महसूस करते हैं उन बेटियों के माता-पिता जब परीक्षा परिणाम घोषित होते हैं और बधाई मिलती है कि मुबारक को आपकी बेटी ने जिले या प्रदेश में टाॅप किया है। हां यह आजकल की बेटियां ही तो हैं जो शिक्षा हासिल करने से लेकर जीवन के हर मोर्चे पर कामयाबी के झण्डे गाड़कर यह साबित कर रही हैं कि वे किसी से कम नहीं। बेटियों की इस कामयाबी का श्रेय घर-परिवार वालों सहित हमारा समाज,शहर, प्रदेश और यहां तक कि देश भी लेना नहीं भूलता। अखबार में खबर छपती है कि फलां-फलां शहर की बेटी ने नाम रोशन किया। पितृसत्तात्मक समाज में लम्बे संघर्ष के बाद अपनी काबलियत के दम पर बेटियां आज अपनी पहचान बनाने में सक्षम हैं। ऐसे में तो यह बेटियां प्रोत्साहन और ईनाम की हकदार बनती हैं। फिर क्यंू इन्हें तिरस्कार, अपमान और अस्मत लुट जाने का भय बांटा जा रहा है। क्यों ऐसे घिनौने और दिल दहला देने वाले काण्ड अंजाम दिए जा रहे हैं कि इन बेटियों के आगे बढ़ते कदम ठिठकने को मजबूर हैं। बेटियों को सरेआम रास्ते से उठा लेना। उनके साथ सामूहिक दुष्कर्म करना और फिर मारकर पेड़ से लटका देने जैसा जघन्य अपराध विकासशील देशों की रेस में तेजी से आगे बढ़ते हुए भारत के लिए बेहद शर्मनाक और भर्तसनीय है।
एक ओर बेटियों की तरक्की के लिए तमाम तरह की योजनाएं चलाई जाती हैं। उनके हाथों में स्मार्टफोन और लैपटाॅप थमाए जाते हैं। उनकी इच्छाओं को पंख देने के दावे किए जाते हैं और दूसरी ओर सैकड़ों परिवारों को बुनियादी सुविधाएं भी मुहैया नहीं कराई जातीं। शौचालय नहीं मुहैया कराए जाते। बदायंू में दो चचेरी बहनें शाम के वक्त घर से शौच करने ही निकली थीं। सरकारी अधिकारी खुद यह बयान देते हैं कि ग्रामीण और दूर-दराज के घरों में शौचालय न होने के कारण ज्यादातर बलात्कार की घटनाएं घटित होती हैं। वाह रे आधूनिकता, वाह रे तरक्की! शासन-प्रशासन का यह कैसा दोमंुहापन है। बदायंू मामले में पुलिसकर्मी लिप्त पाए गए हैं। यह उत्तर प्रदेश के पुलिसियातंत्र के मुंह पर एक तरह से कालिख पुतना है। मामले में पीडि़त परिवार की ओर से सीबीआई जांच की मांग और इस मांग का चैतरफा समर्थन भी उत्तर प्रदेश पुलिस की विश्वसनीयता पर बड़ा प्रश्नचिन्ह है। जिस प्रदेश का मुखिया बलात्कार के संदर्भ में यह बयान दे कि लड़के हैं गलती हो जाती है उस प्रदेश में बेटियों के साथ बलात्कार जंगल में खरगोश का शिकार करने जैसा आसान हो जाए तो हैरानी की क्या बात है! पुलिस की ओर से अपराधिक मामलों में सुनवाई में देरी करना। पीडि़त पक्ष को ही मारपीटकर भगा देना। अपराधियों के साथ मिलकर अपराध को अंजमा देने से ही दबंगों और अपराधियों के हौसले बुलंद हो रहे हैं। आयदिन बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं। बंदायंू, आजमगढ़, बागपत, मुज्जफरनगर और आगरा सहित महीनेभर में उत्तर प्रदेश से दर्जनभर से ज्यादा सामूहिक बलात्कार की घटनाएं प्रकाश में आ चुकी हैं और लगातार आना जारी हैं।
बदायंू में बलात्कार की शिकार दो बहनों में से एक लड़की के पिता ने कहा-‘‘जिस तरीके से हमारी लड़कियों को पूरी दुनिया ने लटके देखा, हम चाहते हैं कि वह दोषियों को भी फांसी के फंदे पर लटके देखे‘‘। यानि वे दोषियों के लिए सरेआम फांसी से कम सजा नहीं चाहते। चाहना भी नहीं चाहिए। भारतीय कानून में इससे भी कड़ी सजा का प्राविधान यदि होता तो पीडि़त और संवेदनशील लोग बंदायंू जैसे वीभत्स काण्ड के दोषियों के लिए जरूर मांग करते। लेकिन इसके बाद भी बड़ा सवाल यह है कि क्या कानून सख्त कर देने और देश के अंतिम पीडि़त व्यक्ति की पहंुच न्याय तक बना देने से बेटियों के साथ बलात्कार की घटनाएं घटित होना बंद हो जाएंगी? जवाब हां या न में कोई नहीं दे सकता। क्योंकि महिलाओं पर अत्याचार के लिए हमारा पूरा सामाजिक ताना-बाना और घर परिवार में बेटा-बेटी की परवरिश में भेदभाव भी कहीं न कहीं जिम्मेदार है। महिलाओं के लिए समग्ररूप से जबतक सामाजिक और पारिवारिक सोच में बदलाव नहीं आएगा तब तक बात नहीं बनने वाली।
बदायंू जैसे काण्ड का एक पिछला उदाहरण याद आता है। दिल्ली के ‘निर्भया काण्ड‘ को अभी इतना वक्त नहीं बीता कि इसकी यादें धंुधली पड़ जाएं। चलती बस में मेडिकल छा़त्रा के साथ मारपीट की गई। सामूहिक बलात्कार हुआ। जिसके कारण कुछ दिन बाद लड़की की मौत हो गई। देशभर खासतौर से दिल्ली में इस काण्ड के खिलाफ देशभर में पुरजोर तरीके से आवाज उठाई गई। मामले की जांच के लिए स्पेशल टास्क फोर्स गठित की गई। फास्ट टैक कोर्ट में मामला चलाया गया। नतीजे में छह दिन के भीतर आरोपी पकड़े गए। बिना पंचनामा पोस्टमार्टम हुआ। सात महीने में 130 सुनवाई हुईं। पुलिस ने 88 गवाह पेश किए गए। इंटरनेशनल वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए बयान दिलवाए गए। चार आरोपियों को फांसी की सजा हुई। जनता के दबाव पर और इस घटना का संज्ञान लेते हुए ही बलात्कार के खिलाफ कानून में बदलाव किया गया। आईपीसी की धारा-376-ई, के तहत अधिकतम सजा मृत्युदंड कर दी गई। मामले को आज भी ‘‘निर्भया केस‘‘ नाम से जाना जाता है। निर्भया केस में जिस तरह से त्वरित कार्रवाई और दोषियों को सजा हुई उससे कानून पर महिलाओं का भरोसा पक्का हो चला था। पर इसके बाद क्या हुआ? विश्वास फिर टूटा। महिलाओं और नाबालिग लड़कियों की अस्मत से खिलवाड़ नहीं रुका। निर्भया केस के बाद पहले आठ महीनों में ही दिल्ली में एक हजार से ज्यादा बलात्कार के मामले दर्ज किए गए। बदायंू मामले में भी सीबीआई जांच की सिफारिश खुद प्रदेश सरकार की ओर से कर दी गई है। अपराधी पकड़े गए हैं। फास्ट टैक कोर्ट में मामला चलाने के आदेश दिए गए हैं। सम्भव है कि निर्भया केस की ही तरह इस मामले में भी दोषियों को फांसी की सजा दिलाने में कामयाबी मिल जाए पर सवाल फिर वही है कि क्या इसके बाद पुलिस का रवैया सुधरेगा। बलात्कार नहीं होंगे!
परिवार और समाज भी हैं जिम्मेदार
दरअसल भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष की समानता और कंधे से कंधा मिलाकर चलने की ज़बानी पैरोकारी तो बहुत होती है लेकिन भीतरी और जमीनी हकीकत जुदा है। जहां बेटा-बेटी को समान परवरिश देने की बात आती है वहां आज भी करोड़ों माता-पिता और समाज और धर्म के कथित ठेकेदारों के सुर बदल जाते हैं।  महिलाओं के अपमान,हिंसा और यहां तक सामूहिक बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के पीछे कहीं न कहीं हमारे भारतीय परिवारों में बेटियों को दबाकर रखने और बेटों की अराजकता को मर्दाना फितरत कहकर टाल देने प्रवृत्ति जिम्मेदार है।
 ‘कल्पतरु एक्सप्रेस‘ में प्रकाशित लेख। फोटो ‘गूगल‘ से साभार।

 

Sunday 25 May 2014

स्त्री दासी नहीं पूरक है

गजरा,टीका, सिंदूर, बिंदिया,आई लाइनर,आई षेडो,काजल,बेस पाउडर,फेस पाउडर,क्रीम,लिप लाइनर,लिपिस्टिक,कान में बाला,गले में मंगलसूत्र,हाथों में चूडियां,मेंहदीं,नाखून पाॅलिष, कमरबंद,पैरों में पायल और बिछिया। उफ! कम से कम इतना तो श्रंगार करती ही हैं, भारतीय दुल्हनें। बैंकिंग सेक्टर में काम करने वाली सहेली की शादीद पर उसे इतना ही सजे देखकर पूछा क्या तुम इतना सब करने के बाद सहज महसूस कर रही होघ् उसका जवाब था शादी कर रही हूं आज तो सबसे अच्छा लगने का हक बनता है मेरा। मैंने ठंडी सांस भरते हुए मनही मन कहा- बिना साज श्रंगार तुम खुद ही अपने आप को पसंद नहीं करतीं तो किसी और को दोश क्या देना। तुम समझतीं क्यंू नहीं कि यह हीनता की भावना बाजार के पितामाह ठूंस रहे हैं तुम्हारे अंर्तमन में। यह बात तुम्हारे मन में घर कर जाए कि तुममे कोई कमी है, जिसके लिए तुम्हारा मेकओवर जरूरी है, तभी तो लिपिस्टिक,पाउडर,गहने-कपडों और ऐन-तेन का बाजार फले-फूलेगा। तुम इन गडबडझालों में उलझी रहो। अपनी रंगी-पुति क्षवि देखकर खुष होती रहो और अपने असल मुद्दों से तुम्हारा ध्यान बंटा रहे ताकि बाजार में तुम्हें एक कमोडिटी की तरह पेष किया जा सके यही तो पित्र सत्ता और पंूजीवादी लोगों की चाल है।
षिक्षित और हाई-प्रोफाईल समुदाय के लोगों के बीच महिलाओं को उनके पति के नाम से जाने जाने का खास तरह का चलन बडा पुराना है। हाई-प्रोफाइल पार्टियों में अक्सर महिलाएं एक दूसरे को मिसेज भाटिया, मिसेज शर्मा, मिसेज खान वगैरह-वगैरह के सम्बोधन से बुलाती हैं। महिलाओं को यह बात चुभती क्यों नहीं ! शादी के बाद इस तहर के प्रोटोकाॅल निभाने वाली कोई महिला क्या इस बात की गारण्टी दे सकती है कि उसका पति सदा उनका ही  बनकर रहेगा। अपने नाम के आगे पति का नाम जोड़नेे से पति बेवफाई नहीं करेगा। अगर तुम श्योर नहीं तो फिर  खुद के नाम के बजाय मिसेज फलाने -ढिमका कहलाने, लिखने का क्या फायदा।
महिलाएं जितना समय सामाजिक-धार्मिक आडम्बर निबटाने में लगाती हैं उतने समय में अपने अधिकारों के बारे में जानें तो उनके साथ होने वाली शारीरिक,मानसिक और आर्थिक हिंसा काफी हद तक कम हो जाए। धर्म षास्त्रों ने  तो महिला को दोयम दर्जे का पराश्रित और असहाय बताने में कोई कोर-कसर नहीं छोडी है। यहााँ महिला पुुुरुष की दासी बताई गई है। जब महिलाओं के बढ़ते कदमों को घर-पति, बच्चों और समाज की दुहाई देकर भी रोकना नामुमकिन हो जाता है तब उन्हें धर्म का डर दिखाया जाता है। महिलाओं के लिए गीता, कुरआन और बाइबिल में फलां-फलां उपदेश की दलीलें दी जाती हैं।
कामकाजी हो तब भी घर की साफ-सफाई या खाना पत्नी ही बनाए।  बच्चों का लालन-पालन करे, पति और सास-ससुर की सेवा करे, क्यों क्योंकि यह सब काम निचले दर्जे के हैं पुररुष के अहम को ठेस पहंुचाते और महिलाओं पर ही जंचते हैं। आंटी, बुआ ताई चाची  या मामी आप किसी से पूछकर देख लीजिए लगभग यही जवाब मिलना तय है। पति-पत्नी दोनों के कामकाजी होने पर असमय मेहमान घर पर आ जाएं या कोई घर का सदस्य बीमार पड जाए तो आॅफिस से छुट्टियां लेने का दायित्व भी पत्नी जी का ही है। षहर से बाहर जाने, देर रात तक घर से बाहर रहने की भी अनुमति अभी मध्यमवर्गीय परिवारों में तो महिलाओं को नहीं मिलती। यह सब चोचले तो हाई-प्रोफाईल महिलाओं के समझे जाते है। ऐसे अवसरों के लिए पत्नी की देह के एकाधिकारी पति को बाॅडीगार्ड बनाकर  साथ ले जाना पड़ता है। ऐसा न करने पर उन्हें खुद भी आत्मग्लानि होने लगती है। क्योंकि बचपन से ही उन्हें इस तरह के नियम-कायदे सिखाए जाते हैं। आज वे तो बस इस बात से ही बेहद खुष हैं कि उन्हें काम करने के लिए घर की दहलीज पार करने की अनुमति मिली हुई है।बेचारी सषक्त महिला!
सिनेमा वगैरह में महिलाओं की सषक्त छवि दिखाना पर उस छवि को सामाजिक पटल पर स्वीकार करना दो अलग-अलग बातें हैं। यह एक  अजीब किस्म का दोहरापन है। यंू तो भारतीय सिनेमा पष्चिमी सिनेमा की धड़ल्ले से नकल पीट रहा है,लेकिन सिर्फ अष्लीलता के पैमाने पर। जब बात स्त्री पुरूश की बराबरी की आती है  तो यह पलटी मार जाता है। काॅकटेल फिल्म की कहानी कुछ ऐसी ही हकीकत दर्षाती है। फिल्म की कहानी के मुताबिक आदर्ष पत्नी बनने की रेस में वह महिला हार जाती है जो पुरूशों के समकक्ष बिंदास जीवन जीती है। षराब पीती है। लेट नाइट डिस्को जाती है। ब्वाॅयफ्रेंड से सेक्स करती है। लिव इन रिलेषन में रहती है,लेकिन जब षादी की बारी आती है तो उसका ब्वाॅयफ्रेंड एक सीधी सादी, घरेलू टाइप महिला के लिए उसे छोड़ देता है। फिल्म मेकर यही कहते हैं  िक वे वही दिखाते हैं जो समाज की हकीकत है। यानि फिल्म संदेष देती है कि हमारे समाज में किसी की पत्नी बहू बनने के लिए सलवार कुर्ता पहनना, खाना बनाना,भगवान में विष्वास करना ,यौवन की पवित्रता बनाए रखने जैसी क्वालीफिकेषन जरूरी  है। सो काॅल्ड खुले विचारों के लोग तो चाहते हैं कि इसके साथ ही अगर लड़की जाॅब भी कर रही हो तो सोने पर सुहागा। ये सब बातें पुरूशों पर लागू नहीं होतीं।
टेलिविजन पर इस तरह के विज्ञापन प्रसारित होना आम बात हैं कि न्यू ब्रांड परफयूम या डियोडरेंट  लगाकर महिलाओं के सामने से पुरूश गुजर जाएं तो वे महज इनकी खुषबू से मदहोष होकर अपना षील भंग कर सकती हैं।  इस तरह की विक्रित मानसिकता का संदेष देनेवाले विज्ञापनों का हिस्सा बनने से महिलाओं को परहेज करना चाहिए। उन्हें यह समझ बनानी होगी कि इसी तरह की पंूजीवादी सोच खुद महिलाओं को महिलावाद के खिलाफ खड़ा करती है। इन विज्ञापनों में काम करने वाली महिलाओं से मैं मनरेगा  के तहत काम करने वाली उस महिला को सषक्त  कहंूगी जो गारा-मिट्टी ढ़ोकर जीविका चलाती है।  एक काॅलोनी में मैंनें दो किस्म की महिलाएं देखीं एक जो  पति के लात-जूते दिन-रात इसलिए खाती है क्योंकि वह उसका और उसके बच्चों का पेट पालता है। इस महिला ने मानों अपना अपमान करवाना स्वीकार कर लिया है। षायद इसलिए वह कहती है कि आदमी को गुस्सा आएगा तो वह बीवी पर ही तो निकालेगा और कहां जाएगा! जूते खाकर भी अत्याचारी पति की पक्षदारी। मुझे लगता है ऐसी पतिव्रता स्त्रियां तो केवल हमारे देष में ही पाई जाती हैं।  दूसरी ओर उसी काॅलोनी में रहने वाली उस महिला से भी मैं मिली हंू जिसने पति के आयदिन की मारकुटाई और गालियों से तंग आकर तलाक ले ली। तलाक से पहले यह गाढे़ किस्म की घरेलू महिला थी लेकिन तलाक के दो साल बाद ही आज अपनी जीविका स्वंय चला रही है और षान से जी रही है। समाज महिलाओं के लिए तलाक को जितना बुरा मानता है, दरअसल वह इतना बुरा है नहीं। महिलाओं को जरूरत है तो सिर्फ अपनी षक्ति पहचानकर जुल्म के खिलाफ उठ खड़े होने की।
बच्चे का होमवर्क कराना हो,पैरेंट-टीचर मीटिंग अटेंड करनी हो  या एनुअल डे निबटाना हो तो मम्मी फस्र्ट लेकिन काॅलेज के एडमिषन फार्म, पहचानपत्र पर पापा का नाम ही  लिखना अनिवार्य है। कहीं-कहीं मम्मी का भी है, लेकिन पापा के नीचे वाले काॅलम में। रसोई सम्भाले मां या पत्नी पर राषनकार्ड में मुखिया के काॅलम में पति या ससुर का नाम । मतदाता पहचानपत्र अथवा आधार कार्ड में वाइफ आॅफ  या डाॅटर आॅफ वाले काॅलम में पति या पिता का नाम  भरता अनिवार्य है। यानि पुरूश के नाम के बिना हमारा सरकारी तंत्र भी महिलाओं  को उनकी पहचान नहीं दे सकता। महिला कामकाजी हो तब भी नहीं। सरकारी दस्तावेजों में वह आज भी पराश्रित ही है।
कहने का आषय यह है कि आधी आबादी ने घर की दहलीज लांघने, स्कूल-काॅलेज में षिक्षा हासिल करने और विभिन्न क्षेत्रों में जीविका कमाने तक के सफर के लिए मीलों का फासला तय किया है। कितने बंधन तोडे हैं,कितने आंदोलन छेड़हैं और न जाने कितने टकराव झेले लेकिन  महज घर से निकलकर काम करने वाली महिला को देखकर महिलाएं तो बड़ी सषक्त होगईं हैं, ऐसा कहना जल्दबाजी होगी। महिलाओं के प्रति पित्रसत्तात्मक सोच को बदलने के लिए अभी बाकी का सफर बहुत लम्बा और कहीं ज्यादा मुष्किलभरा है।  महिलाओं को खुद भी सषक्तिकरण के प्रति अपनी समझ को विस्तार देना होगा। धर्म, परम्परा और रिवाज के नाम पर अनदेखे-अनजाने बंधन अभी अनगिनत हैं। जिनको तोड़ने  के लिए लड़ाई अभी और लम्बी  चलनी हैं।
नोट.हिन्दी दैनिक  कल्पतरु एक्सप्रेस में प्रकाषित लेख
फोटोःसर्च इंजन गूगल से साभार

Thursday 8 May 2014

प्रेम विवाह की पर्यायवाची न रह जाए ’कोर्ट मैरिज’


सात फेरे लेकर दांपत्य जीवन में प्रवेश करें या ’कबूल’ है बोलकर किसी को अपना जीवनसाथी बनाएं। विवाह वैध तो अब तभी माना जाएगा जब इसका कानूनी तौर से पंजीकरण कराया जाए। अब तक भारत में आमतौर पर शादी के कानूनी पंजीकरण को ’प्रेम विवाह’ का पर्यायवाची ही माना जाता रहा है। इसका अंदाजा मुझे इस बात से हुआ कि मिसेस दीक्षित को पति के साथ विदेश जाना था। पासपोर्ट बनवाने और वीजा के लिए उन्हें नाक से चने चबाने की नौबत आ गई। यहां उन्हें जरूरत पडी खुद को दीक्षित जी की ’लीगल वेडेड वाइफ’ साबित करने के लिए ’मैरिज सर्टिफिकेट’ की जो उनके पास नही था। सहेली से अपना दर्द बयां करते समय वह तपाक से बोलीं कि एै है कोई घर से भागकर कोर्ट मैरिज तो की नहीं थी जो सर्टिफिकेट पास होता। ये बात मुए सरकारी अफसरों को कौन समझाए।
विवाह के कानूनी पंजीकरण या ’मैरिज सर्टिफिकेट’ की उपयोगिता के प्रति जागरूकता की कमी है। यही कारण है कि कोर्ट या तहसील में रजिस्ट्ार आॅफिस में दर्ज होने वाली शादियों की संख्या बेहद कम है। आमजनों को शादी के लीगल सर्टिफिकेट की कीमत का अंदाजा उस समय ही होता है,जब शादीशुदा संबंधों में किसी तरह की दरार पडने पर मामला कोर्ट तक पहंुचता है अथवा विदेश जाने के लिए शादीशुदा जोडों को इसकी जरूरत पडती है। कोर्ट में चल रहे मामले में पति से कानूनी हक पाने के लिए ज्यादातर महिलाओं को खुद को ब्याहता साबित करने में ही पसीने छूट जाते हैं। तमाम फर्जीवाडों और दलाली के चलते आर्य समाज मंदिरों से मिले शादी के प्रमाण और निकाहनामों को कोर्ट संदेह की द्ष्टि से देखता है। ऐसे में केंद्र सरकार की ओर से हर  धर्म-जाति के लोगों के लिए कानूनी रूप से विवाह पंजीकरण अनिवार्य करने का फैसला काबिले तारीफ है। फैसले पर मुहर लगाने के लिए सरकार इसके लिए विधेयक लाने की तैयारी में है। विधेयक पास होकर लागू हुआ तो इससे गैर कानूनी शादियों और बाल-विवाह पर भी काफी हद तक लगाम लगने की उम्मीद है। कानूनी रूप से शादी के पंजीकरण के लिए पण्डितों और धर्म गुरुओं के योगदान की भी जरूरत है। यह अपने-अपने समुदाय को इसके लिए जागरूक व प्रेरित कर सकते हैं। फिक्र इस बात की है कि जब पंजीकरण सबके लिए ही अनिवार्य होगा तो पंजीकरण कराने वालों की संख्या द्रुत गति से बढेगी।
हमारे सरकारी सिस्टम की बदहाली और इसकी कार्य प्रणाली की कछुआ चाल से कौन वाकिफ नही है। सरकारी सुस्ती के कारण राशन कार्ड, निवास प्रमाण पत्र या पहचानपत्र बनवाने में जितना समय लगता है। बस समझ लीजिए शादी का लीगल सर्टिफिकेट मिलने में भी उतना ही समय लग सकता है। यह स्थिति तब है जब विवाह पंजीकरण कराने वालों की संख्या अकेले अपने शहर में ही हर साल 300 का भी आकंडा पार नहीं कर पाती। ’स्पेशल मैरिज एक्ट-1954 के तहत केवल धारा पांच का फार्म वर-वधू दोनो को अलग अलग भरकर मैरिज कोर्ट में जमा करना होता है,लेकिन केवल फार्म भरकर जमा करनेभर से पंजीकरण नहीं माना जाता। मजिस्ट्ेट की अनुमति के बाद ही सर्टिफिकेट जारी किया जाता है। औसतन इसमें एक माह से दो माह का समय तो लगता ही है। अब अगर सभी के लिए पंजीकरण अनिवार्य होगा तो पंजीकरण कराने वालों की संख्या सैकडों से लाखों में भी बदल सकती है। सर्टिफिकेट मिलने में महीने के बजाय साल का समय लगेगा। इस स्थिति से बचना है तो ई- गर्वनेस का सपना जो अभी तक कोर्ट-कचेहरियों में पूरी तरह लागू नहीं हो सका है, पूरा करना ही होगा। सरकार की ओर से आॅनलाइन मैरिज रजिस्ट्ेशन की शुरुआत भी करनी होगी। नहीं तो भला कौन सा नव-विवाहित जोडा चाहेगा कि वह नए जीवन की शुरुआत में ही पंजीकरण से लेकर सर्टिफिकेट हासिल करने के लिए कोर्ट-कचेहरी के चक्कर काटते रहे। नए कानूनों के साथ सरकारी सिस्टम का भी नवीनीकरण जरूरी है। नहीं तो नया विधेयक भी उन्हीं कानूनो की जमात में शामिल हो जाएगा जो पहले से लागू होने के बाद भी ठंडे बस्ते में पडे हैं। हम वहीं खडे रह जाएंगे जहां से चले थे और शादी का कानूनी पंजीकरण या ’कोर्ट मैरिज’ ’प्रेम विवाह’ के पर्यायवाची तक ही सीमित रह जाएगा।

नोट-मेरा यह लेख हिन्दी समाचारपत्र कैनविज टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है।