आज़ादी के 74 साल बाद भी आप हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बंटवारे को याद करके क्यों दुखी होते हैं? या ‘डिवाईड एण्ड रूल‘ यानी बांटों और राज करो की नीति के लिए अंग्रेजों की निंदा क्यों करते हैं। जबकि आप खुद आज धर्म, जात, क्षेत्र, भाषा, राज्य, आर्थिक और यहां तक कि बौद्धिक आधार पर बंटवारे के लिए तैयार रहते हैं। फिर इसी बंटी हुई जमात में से अपना नेता चुनते हैं। ज्यादा दूर न जाईए तो दो महीने पहले सम्पन्न हुए आम चुनाव तक चलते हैं। धर्म के नाम पर बीजेपी को जिताने के लिए एक तरफ हिंदू एकजुट होते दिखाई दिए तो कई इलाकों में मुसलमान संगठित हुए बीजेपी को शिकस्त देने के लिए। इन्होंने उनके लाल टीके से खुन्नस निकाली तो उन्होंने इनकी सफेद टोपी व दाढ़ी से़। इधर ‘आप‘ के समर्थन में एलीट वर्ग खड़ा नज़र नहीं आया। इन्हें यह डर कि जुड़ गया तो इनकी खासियत जाती रहेगी। इसी तरह बसपा दलितों और पिछड़ों की पार्टी मानी जाती है, तो यहां तो और भी दिक्कत है। एकआध बार नाम लिया,तज़किरा किया बसपा सुप्रीमो ‘मायावती‘ का अपनी पढ़ी-लिखी सर्वण हम मज़हब बहनों के बीच। जवाब में सुनने को मिला कि वह तो मेहतरों-चमारों की नेता हैं, इनसे तो बेहतर है सपा को चुनें, आखिर मुसलमानों के हक की बात तो करती है। दिल को ठेस लगी यह सोंचकर कि ‘सड़क किनारे चाट के ठेले पर गोलगप्पे खाने से पहले तो तुम चाट वाले की जात नहीं पूछतीं फिर मताधिकार के प्रयोग के लिए ‘कास्ट कांशिएस‘ क्यों?
ज़रा यूपी के हालिया
हालात पर नज़र डालिए। एक लड़का किसी लड़की को छेड़ता है तो इसे धर्म व जात की
इज्जत का सवाल बना लिया जाता है और प्रदेश में दंगे भड़क जाते हैं। यहां मुसलमान
मंदिर में लगा लाउडस्पीकर उतारने को आतुर हैंै क्योंकि उसे डर है कि भजन सुनने से
उसका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। क्या इसी दिन के लिए हमने अंग्रेजों से आज़ादी हासिल
की थी? शहीदों ने अपना खून बहाया
था कि भाई-भाई का गला काटे। यूपी-बिहार के लोग महाराष्ट जाते हैं रोज़ी-रोटी की
तलाश में। अपनी प्रतिभा के बलबूते नौकरी हासिल करना चाहते हैं पर एक नहीं कई बार
ये हुआ कि क्षेत्रवाद से प्रेरित होकर टैलेण्ट को ‘भईया‘ कहकर धक्का दे
दिया गया। अंग्रेजी जानने वाला आदमी हिंदी जानने वाले के रास्ते का कांटा बना बैठा
है। कैसी विडंबना है? अवसर के लिए भाषा
के खिलाफ जंग छेड़नी पड़ रही है। ये अंग्रेजी के विद्वान ये क्यों भूल जाते हैं कि
हमारा देश ‘सोने की चिडि़या‘ तब कहलाता था जब न यहां अंग्रेज थे न
अंग्रेजियत। किसी भाषा का जानकार होना अच्छा है। पर एक भाषा को दूसरी भाषा की
सौतेली बहन बनाकर खड़ा कर देना गलत है। महानगर के कई लोग गांव कस्बे के लोगों की
सोच को छोटा बताकर उनके मूल्यों और आदर्शों की खिल्ली उड़ाते हैं। यहां तक कि एक
ही शहर के निवासी नए और पुराने शहर के आधार पर खुद को बंटा हुआ दिखाना पसंद करते
हैं। अक्लमंदी का सर्टिफिकेट पाए हुए कुछ माननीय अपने से छोटे संघर्षशील व्यक्ति
से दूरी बनाकर चलते हैं। वे अपनी जमात वालों के ‘शिट‘ पर भी वाह-वाह
करते दिखाई पड़ते हैं लेकिन संघर्षशील व्यक्ति के टैलेण्ट को गले लगाने से
हिचकिचाते हैं। ये भी भूल जाते हैं आज वे जिस जगह हैं वहां तक इसी रास्ते से होकर
पहंुचे हैं। कहने का मतलब ये है कि यदि आप लोग इस क़दर बंटे हुए हैं। और
बांटने-बंटने की पालिसी पर ही चलते रहना है तो फिर देश या समाज के नुकसान पर
मगरमच्छ के आंसू बहाना बंद कीजिए। किसी भी तरह के बंटवारे, भेदभाव, अन्याय और गुलामी
वाली व्यवस्था पर झूठा अफसोस जताने का तब तक कोई फायदा नहीं जब तक कि आप खुद भी
किसी न किसी रूप में इसी व्यवस्था का हिस्सा हैं। अंग्रेजों के बाद अगर देशवासियों
को आपस में ही अपने अधिकारों या समान अवसरों के लिए अलग-अलग धर्म, जात, क्षेत्र, भाषा और विचारों
के कारण संघर्ष करना पड़े तो फिर हम आज़ाद कैसे और किन मायनों में हुए,गौर करने की जरूरत है।
सनातन धर्म के अगड़े,पिछड़े,दलित,
ReplyDeleteआर्य समाजी.
इस्लाम मज़हब के शिया,सुन्नी
सिक्ख धर्म के अकाली,निरंकारी,मज़हबी सिक्ख,
जैन धर्म के दिगम्बर, श्वेताम्बर
बौध धर्म के हीनयान और महायान
ईसाइयत के रोमन कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट
सभी लोगों को यौमे आज़ादी की दिली मुबारक बाद