Tuesday 10 June 2014

दरिंदों का आसान शिकार क्यों बन रहीं प्रदेश की बेटियां

कितना गर्व महसूस करते हैं उन बेटियों के माता-पिता जब परीक्षा परिणाम घोषित होते हैं और बधाई मिलती है कि मुबारक को आपकी बेटी ने जिले या प्रदेश में टाॅप किया है। हां यह आजकल की बेटियां ही तो हैं जो शिक्षा हासिल करने से लेकर जीवन के हर मोर्चे पर कामयाबी के झण्डे गाड़कर यह साबित कर रही हैं कि वे किसी से कम नहीं। बेटियों की इस कामयाबी का श्रेय घर-परिवार वालों सहित हमारा समाज,शहर, प्रदेश और यहां तक कि देश भी लेना नहीं भूलता। अखबार में खबर छपती है कि फलां-फलां शहर की बेटी ने नाम रोशन किया। पितृसत्तात्मक समाज में लम्बे संघर्ष के बाद अपनी काबलियत के दम पर बेटियां आज अपनी पहचान बनाने में सक्षम हैं। ऐसे में तो यह बेटियां प्रोत्साहन और ईनाम की हकदार बनती हैं। फिर क्यंू इन्हें तिरस्कार, अपमान और अस्मत लुट जाने का भय बांटा जा रहा है। क्यों ऐसे घिनौने और दिल दहला देने वाले काण्ड अंजाम दिए जा रहे हैं कि इन बेटियों के आगे बढ़ते कदम ठिठकने को मजबूर हैं। बेटियों को सरेआम रास्ते से उठा लेना। उनके साथ सामूहिक दुष्कर्म करना और फिर मारकर पेड़ से लटका देने जैसा जघन्य अपराध विकासशील देशों की रेस में तेजी से आगे बढ़ते हुए भारत के लिए बेहद शर्मनाक और भर्तसनीय है।
एक ओर बेटियों की तरक्की के लिए तमाम तरह की योजनाएं चलाई जाती हैं। उनके हाथों में स्मार्टफोन और लैपटाॅप थमाए जाते हैं। उनकी इच्छाओं को पंख देने के दावे किए जाते हैं और दूसरी ओर सैकड़ों परिवारों को बुनियादी सुविधाएं भी मुहैया नहीं कराई जातीं। शौचालय नहीं मुहैया कराए जाते। बदायंू में दो चचेरी बहनें शाम के वक्त घर से शौच करने ही निकली थीं। सरकारी अधिकारी खुद यह बयान देते हैं कि ग्रामीण और दूर-दराज के घरों में शौचालय न होने के कारण ज्यादातर बलात्कार की घटनाएं घटित होती हैं। वाह रे आधूनिकता, वाह रे तरक्की! शासन-प्रशासन का यह कैसा दोमंुहापन है। बदायंू मामले में पुलिसकर्मी लिप्त पाए गए हैं। यह उत्तर प्रदेश के पुलिसियातंत्र के मुंह पर एक तरह से कालिख पुतना है। मामले में पीडि़त परिवार की ओर से सीबीआई जांच की मांग और इस मांग का चैतरफा समर्थन भी उत्तर प्रदेश पुलिस की विश्वसनीयता पर बड़ा प्रश्नचिन्ह है। जिस प्रदेश का मुखिया बलात्कार के संदर्भ में यह बयान दे कि लड़के हैं गलती हो जाती है उस प्रदेश में बेटियों के साथ बलात्कार जंगल में खरगोश का शिकार करने जैसा आसान हो जाए तो हैरानी की क्या बात है! पुलिस की ओर से अपराधिक मामलों में सुनवाई में देरी करना। पीडि़त पक्ष को ही मारपीटकर भगा देना। अपराधियों के साथ मिलकर अपराध को अंजमा देने से ही दबंगों और अपराधियों के हौसले बुलंद हो रहे हैं। आयदिन बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं। बंदायंू, आजमगढ़, बागपत, मुज्जफरनगर और आगरा सहित महीनेभर में उत्तर प्रदेश से दर्जनभर से ज्यादा सामूहिक बलात्कार की घटनाएं प्रकाश में आ चुकी हैं और लगातार आना जारी हैं।
बदायंू में बलात्कार की शिकार दो बहनों में से एक लड़की के पिता ने कहा-‘‘जिस तरीके से हमारी लड़कियों को पूरी दुनिया ने लटके देखा, हम चाहते हैं कि वह दोषियों को भी फांसी के फंदे पर लटके देखे‘‘। यानि वे दोषियों के लिए सरेआम फांसी से कम सजा नहीं चाहते। चाहना भी नहीं चाहिए। भारतीय कानून में इससे भी कड़ी सजा का प्राविधान यदि होता तो पीडि़त और संवेदनशील लोग बंदायंू जैसे वीभत्स काण्ड के दोषियों के लिए जरूर मांग करते। लेकिन इसके बाद भी बड़ा सवाल यह है कि क्या कानून सख्त कर देने और देश के अंतिम पीडि़त व्यक्ति की पहंुच न्याय तक बना देने से बेटियों के साथ बलात्कार की घटनाएं घटित होना बंद हो जाएंगी? जवाब हां या न में कोई नहीं दे सकता। क्योंकि महिलाओं पर अत्याचार के लिए हमारा पूरा सामाजिक ताना-बाना और घर परिवार में बेटा-बेटी की परवरिश में भेदभाव भी कहीं न कहीं जिम्मेदार है। महिलाओं के लिए समग्ररूप से जबतक सामाजिक और पारिवारिक सोच में बदलाव नहीं आएगा तब तक बात नहीं बनने वाली।
बदायंू जैसे काण्ड का एक पिछला उदाहरण याद आता है। दिल्ली के ‘निर्भया काण्ड‘ को अभी इतना वक्त नहीं बीता कि इसकी यादें धंुधली पड़ जाएं। चलती बस में मेडिकल छा़त्रा के साथ मारपीट की गई। सामूहिक बलात्कार हुआ। जिसके कारण कुछ दिन बाद लड़की की मौत हो गई। देशभर खासतौर से दिल्ली में इस काण्ड के खिलाफ देशभर में पुरजोर तरीके से आवाज उठाई गई। मामले की जांच के लिए स्पेशल टास्क फोर्स गठित की गई। फास्ट टैक कोर्ट में मामला चलाया गया। नतीजे में छह दिन के भीतर आरोपी पकड़े गए। बिना पंचनामा पोस्टमार्टम हुआ। सात महीने में 130 सुनवाई हुईं। पुलिस ने 88 गवाह पेश किए गए। इंटरनेशनल वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए बयान दिलवाए गए। चार आरोपियों को फांसी की सजा हुई। जनता के दबाव पर और इस घटना का संज्ञान लेते हुए ही बलात्कार के खिलाफ कानून में बदलाव किया गया। आईपीसी की धारा-376-ई, के तहत अधिकतम सजा मृत्युदंड कर दी गई। मामले को आज भी ‘‘निर्भया केस‘‘ नाम से जाना जाता है। निर्भया केस में जिस तरह से त्वरित कार्रवाई और दोषियों को सजा हुई उससे कानून पर महिलाओं का भरोसा पक्का हो चला था। पर इसके बाद क्या हुआ? विश्वास फिर टूटा। महिलाओं और नाबालिग लड़कियों की अस्मत से खिलवाड़ नहीं रुका। निर्भया केस के बाद पहले आठ महीनों में ही दिल्ली में एक हजार से ज्यादा बलात्कार के मामले दर्ज किए गए। बदायंू मामले में भी सीबीआई जांच की सिफारिश खुद प्रदेश सरकार की ओर से कर दी गई है। अपराधी पकड़े गए हैं। फास्ट टैक कोर्ट में मामला चलाने के आदेश दिए गए हैं। सम्भव है कि निर्भया केस की ही तरह इस मामले में भी दोषियों को फांसी की सजा दिलाने में कामयाबी मिल जाए पर सवाल फिर वही है कि क्या इसके बाद पुलिस का रवैया सुधरेगा। बलात्कार नहीं होंगे!
परिवार और समाज भी हैं जिम्मेदार
दरअसल भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष की समानता और कंधे से कंधा मिलाकर चलने की ज़बानी पैरोकारी तो बहुत होती है लेकिन भीतरी और जमीनी हकीकत जुदा है। जहां बेटा-बेटी को समान परवरिश देने की बात आती है वहां आज भी करोड़ों माता-पिता और समाज और धर्म के कथित ठेकेदारों के सुर बदल जाते हैं।  महिलाओं के अपमान,हिंसा और यहां तक सामूहिक बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के पीछे कहीं न कहीं हमारे भारतीय परिवारों में बेटियों को दबाकर रखने और बेटों की अराजकता को मर्दाना फितरत कहकर टाल देने प्रवृत्ति जिम्मेदार है।
 ‘कल्पतरु एक्सप्रेस‘ में प्रकाशित लेख। फोटो ‘गूगल‘ से साभार।

 

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